हम कहाँ खो गए
एक शाम आइ थी,
लाई गम, खुशियाँ भी,
की गुफ्तगू हमने, पता चला,
थी रुसवा वो भी,
खुशियाँ अब क्या लेते,
थोड़ा गम बाँट लिया.
फ़िर आई रात,
लाई नींद, बेचैनी भी,
की गुफ्तगू हमने, पता चला,
थी बेचैन वो भी,
नींद अब क्या लेते,
थोड़ी बेचैनी बाँट ली.
सुबह आई खिलखिलती,
लाई ताज़गी, नींद भी,
की गुफ्तगू हमने, पता चला,
थी थकावट उसे भी,
ताज़गी अब क्या लेते,
ली नींद और सो गए.
और तुम कहती हो हम खुश नहीं रहते,
जागते हैं रात भर,
दिनभर सोए रहते हैं,
करो गुफ्तगू हमसे कभी,
तुम्हें पता चलेगा,
की हम कहाँ खो गए.
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