इन वादियों से गुज़रते हुए हवाओं का हाल पूछा मैने |
पड़ोसी देश से आई है, संदेशा लाई है कहने ||
कहने लगी वहाँ एक मासूम सी लड़की नवाज़ पढ़ रही है |
नीली सी आँखें, पर्वतों पॅ टिकी , कुछ कहानी कह रही है ||
गोले-बारूद , बंधुकों के चलने का शोर है |
ह्स के कहा उसने, ये तो सरहद के दोनो और हैं ||
पहियों को डंडों से मारते हुए बचों को खेलते हुए देखा |
बूढ़ी सी औरत को चूल्हे पे रोटी बनाते हुए देखा ||
एक माँ को हाथों से अपने बच्चे को खिलते हुए देखा |
एक पिता को अपने बच्चे को स्कूल ले जाते हुए देखा ||
मस्जिद देखा , मंदिर देखा |
लोगों को बुरखे और हिजाब मैं तो कहीं सारी और बिंदियों मैं देखा ||
आसचार्य इस बात का था की उन्हें अलग करती है एक कम्बक़्त सी रेखा....
एक दिन ना होंगी फसलें, ना गोले-बारूद और ना बंधुकों का शोर होगा |
अमन और शांति होगी,
फिर हम साथ हँसे और कहा- "हां ये सरहद के दोनो और होगा" ||
P.S.- Finally broke my extreme forbearance towards writing and have pen down something random that came into my mind, as usual at midnight when i always start writing, i hope you like this little effort.